बाबा के बिना ‘मैच’ खेला तो ‘सेंचुरी’ भी मुश्किल- अशोक पांडेय(लेखक- देश के वरिष्ठ संपादकों में से एक हैं)


बीते दो दिन पूर्व मैराथन बैठक के बाद भी भाजपा और संघ के विचारक महामंथन के चरम बिंदु पर नहीं पहुंच पाये हैं। दिल्ली में मोदी सरकार के सात साल पूरे हो गये हैं लेकिन उत्तर प्रदेश में आसन्न विधानसभा चुनाव चक्रव्यूह का सातवां द्वार साबित हो रहा है। सत्तासीन मठाधीशों में कौरव-पांडवों जैसी ईर्ष्या की ज्वाला धधक रही है। भाजपा हाईकमान राख में दबी इस चिनगारी को शोला बनने से रोकने के भगीरथ प्रयास कर रही है। शीर्ष नेतृत्व की बस एक ही मंशा है कि किसी अभिमन्यु की शहादत के बिना ही चक्रव्यूह का सातवां द्वार टूट जाये। यद्यपि यह आसान नहीं है, फिर भी दिल्ली के अमोघ अस्त्र पर पूरी पार्टी को भरोसा है। विचार-मंथन के दौरान एक स्थिति तो ऐसी भी आयी जब लगा कि युद्ध टालने के लिए सारथी से लेकर सैनिक तक सब बदल दिये जायें पर रणनीतिकारों को यह अहसास है कि सारथी बदलने और घुड़सवारों को पैदल करने से 2022 का विजय रथ रसातल में चला जायेगा।
गौरतलब है कि संघ प्रमुख मोहन भागवत ने अभी कुछ दिन पहले कहा था कि ‘अमृत’ निकलने तक समुद्र मंथन तो करना ही होगा। संघ प्रमुख की बात का निहितार्थ यही है कि अपेक्षित परिणाम आने तक प्रयत्न नहीं रोकने चाहिए। वर्तमान परिदृश्य में राजनीतिक समुद्र मंथन का ‘अमृत’ तो सिर्फ सिंहासन (कुर्सी) ही है। रही मंथन से निकलने वाले हलाहल की बात तो वह कोरोना के रूप में गरीब जनता ने पहले ही पी लिया है। राजनीति की इतनी ‘अशिव’ दशाओं में कोई ‘शिव’ मिलना असंभव था, इसी कारण आम जन ने वह ‘गरल’ खुद पी लिया।
कोरोना महामारी ने महाराष्ट्र, दिल्ली के बाद सबसे ज्यादा उत्तर प्रदेश को ही झिंझोड़ा, नोचा और निगला। देश की खेवनहार पार्टी के दिग्गजों ने लखनऊ में दो दर्जन मंत्रियों और पदाधिकारियों से बात की और उनसे दर्जनों सवाल पूछे। पर किसी भी मंत्री, विधायक और पदाधिकारी से यह नहीं पूछा कि उन्होंने अपने हलके में कोरोना मरीजों की कितनी मदद की। उनके जिले के अफसरों और अस्पतालों ने गरीबों के साथ कैसा सुलूक किया। राजनीति का इससे विद्रूप चेहरा और नहीं हो सकता। सूत्रों के अनुसार हर मंत्री और पदाधिकारी से सबसे बड़ा यक्ष प्रश्न यही पूछा गया कि इस वक्त चुनाव हों तो नतीजे क्या होंगे? लगभग सबका एक ही जवाब था कि सरकार की हठधर्मिता, कार्यकर्ताओं की उपेक्षा और संगठन के असहयोग के कारण पार्टी में असंतोष एवं कार्यकर्ताओं में भारी रोष है। यह गुस्सा ज्वालामुखी बन सकता है। कार्यकर्ताओं की नाराजगी और जनता का सरकार से टूटता भरोसा काफी नुकसानदेह साबित हो सकता है।
बिना किसी के कहे पर भरोसा करें तो दो दिन के महामंथन से ‘अमृत’ तो नहीं निकला पर जो ‘नवनीत’ निकला उसे चखने के बाद एक ही स्वर मंद-मंद सुनाई पड़ रहा है कि यदि ‘बाबा’ के बिना ‘मैच’ खेला गया तो इस वक्त भाजपा की ‘सेंचुरी’ भी मुश्किल है।