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प्रियदर्शिनी मट्टू हत्याकांड: दिल्ली हाईकोर्ट ने सुनाया ये फैसला

1996 के बहुचर्चित प्रियदर्शिनी मट्टू बलात्कार और हत्याकांड में दिल्ली हाईकोर्ट ने एक महत्वपूर्ण और संवेदनशील फैसला सुनाया है। कोर्ट ने सजा समीक्षा बोर्ड (Sentence Review Board) द्वारा दोषी संतोष कुमार सिंह की समय से पहले रिहाई की याचिका खारिज करने के फैसले को रद्द कर दिया है और बोर्ड को नए सिरे से विचार करने का निर्देश दिया है।

क्या कहा हाईकोर्ट ने?

दिल्ली हाईकोर्ट के जस्टिस संजीव नरूला ने अपने फैसले में कहा कि:

“दोषी संतोष कुमार सिंह में सुधार की गुंजाइश है। ऐसे में केवल पुराने रिकॉर्ड या औपचारिक प्रक्रिया के आधार पर याचिका खारिज करना उचित नहीं है।”

कोर्ट ने सजा समीक्षा बोर्ड (SRB) को निर्देश दिया कि वह संतोष कुमार सिंह का मनोवैज्ञानिक मूल्यांकन (Psychological Evaluation) करवाए और यह पता लगाए कि उसमें फिर से अपराध करने की प्रवृत्ति समाप्त हो चुकी है या नहीं।

फैसले के पीछे की बड़ी बात

कोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया कि मौजूदा SRB व्यवस्था में मेडिकल या साइकोलॉजिकल विशेषज्ञ की कोई रिपोर्ट नहीं ली जाती, जिससे यह तय कर पाना मुश्किल हो जाता है कि किसी दोषी का व्यवहार सुधार हुआ है या नहीं।

“बिना वैज्ञानिक मूल्यांकन के सिर्फ सतही रिपोर्ट्स के आधार पर रिहाई पर फैसला करना न तो न्यायसंगत है और न ही समाजहित में।”
– जस्टिस संजीव नरूला

केस का पृष्ठभूमि: कौन थीं प्रियदर्शिनी मट्टू?

  • प्रियदर्शिनी मट्टू, दिल्ली विश्वविद्यालय की 25 वर्षीय कानून छात्रा थीं।
  • जनवरी 1996 में उनके दक्षिण दिल्ली स्थित फ्लैट में बलात्कार के बाद हत्या कर दी गई थी।
  • आरोपी संतोष कुमार सिंह, उस समय IPS अधिकारी का बेटा और DU का लॉ स्टूडेंट था।

न्यायिक सफर:

  • 1999: ट्रायल कोर्ट ने सबूतों के अभाव में संतोष को बरी कर दिया
  • 2006: दिल्ली हाईकोर्ट ने ट्रायल कोर्ट का फैसला पलटते हुए संतोष को दोषी ठहराया और मौत की सजा सुनाई।
  • 2010: सुप्रीम कोर्ट ने मौत की सजा को आजीवन कारावास में बदल दिया लेकिन दोषसिद्धि को बरकरार रखा।

अब आगे क्या होगा?

अब सजा समीक्षा बोर्ड को:

  • संतोष कुमार सिंह के केस पर नए सिरे से विचार करना होगा।
  • उसका साइकोलॉजिकल असेसमेंट करवाना होगा।
  • यह जांचना होगा कि क्या वह अब समाज में फिर से शामिल होने योग्य है या नहीं।

यह फैसला न केवल एक संवेदनशील मामले में न्यायिक प्रक्रिया के गंभीर पहलुओं को उजागर करता है, बल्कि यह भी संकेत देता है कि रिहाई जैसे फैसले केवल औपचारिकताओं के आधार पर नहीं लिए जा सकते।

हाईकोर्ट के इस निर्देश से यह स्पष्ट होता है कि दोषियों की रिहाई की प्रक्रिया में वैज्ञानिक और मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाना जरूरी है, ताकि न्याय और सुरक्षा दोनों के साथ समझौता न हो।

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